दिल्ली की हलचल भरी सड़कों से कुछ ही कदम दूर एक ऐसी दुनिया बसती है, जहां रोशनी कम है, पर अंधेरों में कहानियाँ ज्यादा हैं। यह कहानी है जीबी रोड, दिल्ली के सबसे पुराने और बदनाम रेड लाइट एरिया की—जहाँ हजारों महिलाएँ हर रात अपनी मजबूरी का बोझ ढोती हैं, कभी आँसू बनकर, कभी मुस्कान का नकाब पहनकर।

पहली नज़र: तंग गलियाँ, टूटे सपने और भीड़ में खोई हुई जिंदगी- शाम का समय था। दुकानों के शटर धीरे-धीरे गिर रहे थे, और जैसे-जैसे रात बढ़ रही थी, जीबी रोड की आवाज़ें बदलने लगीं। सड़क के दोनों ओर पीली रोशनी झिलमिलाने लगी। ऊपर की मंज़िलों पर लगे लोहे के जंग लगे खिड़की-दरवाज़ों के पीछे महिलाएँ खामोशी से बैठी थीं—कुछ कस्टमर के इंतज़ार में, कुछ अपनी छोटी-सी दुनिया में गुम।
हम जैसे ही एक कोठे की सीढ़ियाँ चढ़े, नमी, घुटन और समय से पहले बूढ़ा कर देने वाली तकलीफ की गंध मिली। वहाँ लगभग 12 महिलाएँ एक छोटे कमरे में बैठी थीं, छीनी गई मुस्कान और टूटते हुए विश्वास के साथ।
एक सेक्स वर्कर से बातचीत शुरू हुई। चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी।
“पहले तो रोज़ कई कस्टमर आ जाते थे, पर अब मुश्किल से एक-दो ही आते हैं। लॉकडाउन के बाद से हालात बिल्कुल गिर गए। काम तो है पर पैसा नहीं.”
उन्होंने बताया कि एक कस्टमर से सिर्फ ₹500 मिलते हैं, और उसमें से भी आधा मालिक ले जाता है।“हमारे पास बचता क्या है? दवाई-खाना सब महंगा हो गया है। जिंदगी बस खिंच रही है।”
40 साल की कहानी: बदला हुआ नाम ‘सविता’ की आँखों में छिपा दर्द,यहाँ सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाली महिला थीं सविता, जिनकी उम्र लगभग 60 साल थी। उनके चेहरे की लकीरों से उनकी उम्र नहीं बल्कि जीवन की तकलीफें झलकती थीं।
वह धीमी आवाज़ में बोलीं:“मैं यहाँ 40 साल से हूँ। जब आई थी तब मैं 20 साल की थी… जवान, डरती हुई, टूटी हुई। सोचा था कुछ साल रहकर निकल जाऊँगी, पर जिंदगी निकल गई। अब तो बस आखिरी समय तक यही रहना है।”
उनकी आँखें कुछ देर के लिए नम हो गईं।
उन्होंने आगे कहा:“पहले काम अच्छा था, पर अब सब खत्म हो गया। कस्टमर भी घट गए, पैसा भी। और उम्र हो गई है, अब कौन पूछता है?”उनके शब्दों में वह दर्द था जिसे सुनकर गलियारे भी शायद रो पड़ें।
पूरे जीबी रोड में लगभग 500–700 सेक्स वर्कर्स रहती हैं।उनकी उम्र देखने पर पता चलता है कि यहाँ कोई 25 साल की भी है और कोई 60 साल की भी।हर महिला का अपना अतीत है—कुछ गरीबी से हारी हुई, कुछ धोखे से लायी गईं।

एक कोठी में 10 से 15 महिलाएँ। एक कमरे में बिस्तर।एक चूल्हा।एक बाथरूम। और बहुत सारी मजबूरियाँ।
स्वास्थ्य सेवाओं पर बात हुई तो एक सेक्स वर्कर बोली:“हेल्थ चेकअप? यहाँ कोई सरकारी मदद नहीं आती।एनजीओ वाले आते हैं कभी-कभी,पर हम भरोसा नहीं करते। बीमारी हो जाए तो प्राइवेट डॉक्टर के पास जाना पड़ता है। वहाँ पैसे देने पड़ते हैं। पर क्या करें? जान तो सबको प्यारी है।”
बीमारी, दवाइयाँ और गरीबी—इन तीनों की जंग में कई महिलाएँ चुपचाप हारती रहती हैं, और किसी को पता भी नहीं चलता।
“गंदा है, लेकिन पेट के लिए करना पड़ता है”
हर महिला अपने शरीर को नहीं, बल्कि मजबूरी को बेचती है—पेट पालने के लिए, बच्चों को पढ़ाने के लिए, और जीने के लिए।

एक सेक्स वर्कर बदला हुआ नाम काजल ने रोते हुए कहा:“हर दिन अपने आपको मारकर जीना पड़ता है। हम बुरी नहीं हैं… बस हालात बुरे हैं।”उनकी आँखों में एक ऐसा दर्द था जिस पर शहर की रफ्तार कभी नहीं रुकी।

पुलिस और सोशल पहल: उम्मीद की एक किरण,
जीबी रोड में महिला पुलिस चौकी एक बड़ी भूमिका निभाती है।चौकी प्रभारी किरण सेठी यहाँ की महिलाओं के लिए कई सोशल वर्क करती हैं—सिलाई मशीन देकर ट्रेनिंग ,स्किल डेवलपमेंट क्लास,पढ़ाई के मौके,शिकायतें सुनना ,कोठों में नियमित पेट्रोलिंग होती रहती है।
किरण सेठी कहती हैं:“ये महिलाएँ गलत नहीं हैं। ये हालात की मारी हैं। हमारा काम है इन्हें सुरक्षा देना, सम्मान देना और इनके लिए बेहतर विकल्प बनाना।”
स्थानीय पुलिस भी लगातार इलाके में पेट्रोलिंग करती है ताकि किसी भी घटना पर तुरंत कार्रवाई हो सके। जी बी रोड पर कोई वारदात या घटना न हो पेट्रोलिंग होती रहती है । यहाँ पुलिस की मौजूदगी इन महिलाओं को सुरक्षा का एहसास देती है—भले ही जिंदगी अभी भी कठिन है।

जीबी रोड की वही पुरानी सच्चाई—दर्द, मजबूरी और टूटे हुए सपने
जीबी रोड की रातें चमकती जरूर हैं, लेकिन इसके पीछे कई औरतों की बुझती उम्मीदें छिपी हैं।वे औरतें जो दिखती हैं लेकिन दिखाई नहीं देतीं।जो हँसती हैं लेकिन रोती भी हैं।
जो जीती हैं लेकिन हर पल मरती भी हैं।
उनकी जिंदगी एक सवाल है— सवाल समाज से, सरकार से और उस व्यवस्था से जो उन्हें इस अंधेरे में छोड़कर आगे बढ़ जाती है।





